Saturday 30 April 2011

जनहित याचिकाओं की राह में यूपी हाईकोर्ट का रोड़ा!

प्रवक्ता.कम के अनुसार ---

भारत के न्यायिक इतिहास में उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट ऐसा पहला हाई कोर्ट हो गया है, जिसमें अब किसी गरीब और आम व्यक्ति या किसी भी संस्था की ओर से आसानी से जनहित याचिका दायर नहीं की जा सकेगी। हाई कोर्ट की प्रशासनिक कार्यवाही के तहत जारी किये गये उक्त आदेश को देखने से लगता है, मानो यह आदेश कार्यपालिका के किसी अधिकारी द्वारा आम लोगों की आवाज़ को दबाने के लिए जारी किया गया हो। जबकि न्यायिक अधिकारियों से ऐसे कठोर प्रशासकीय आदेशों की अपेक्षा नहीं की जाती है।
उ. प्र. हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाईन के नाम पर यह कदम उठाया है। जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखण्ड से सम्बन्धित एक मामले में कहा था कि जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग रोकने के लिये सभी हाई कोर्ट्‌स को अपने-अपने स्तर पर कदम उठाने चाहिये। उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट ने हाई कोर्ट रूल्स 1952 के अध्याय 22 में संशोधन करके नियम एक में उपनियम 3-ए जोडा है। ऐसा बताया जा रहा है कि उ. प्र. हाई कोर्ट ने यह कहकर के उपरोक्त संशोधन किया है कि इससे हाई कोर्ट में दायर हो रही जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना आसान हो सकेगा।
अब इस नये नियम के मुताबिक जब कोई व्यक्ति उ. प्र. हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर करेगा तो सबसे पहले उसे एक शपथ-पत्र पेश करके अपना संक्षिप्त परिचय प्रमाणित करना होगा। इसके अलावा शपथ-पत्र में उसे यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसका याचिका को दायर करने में कोई व्यक्तिगत हित या लाभ तो निहित नहीं है। उसे यह भी घोषणा करनी होगी कि जनहित याचिका मंजूर होने पर न तो उसे स्वयं को और न ही उसके किसी सम्बन्धी को किसी प्रकार का लाभ होगा। हाई कोर्ट के नये रूल में आगे यह भी कहा गया है कि शपथ-पत्र में स्पष्ट रूप से घोषणा करनी होगी कि याचिका में पारित आदेश से किसी व्यक्ति विशेष, समुदाय अथवा राज्य का नुकसान नहीं होगा।
यदि कोई सामाजिक संस्था याचिका दायर करती है तो उसे भी याचिका दायर करने के लिए अपनी विश्वसनीयता और जनहित से जुडे उसके कार्यों, उपलब्धियों आदि का विस्तृत विवरण दर्शाते हुए शपथ-पत्र पेश करना होगा। हाई कोर्ट के नये संशोधित नियम में यह और कहा गया है कि यदि उपरोक्त शर्तें या इनमें से एक भी शर्त याचिकाकर्ता द्वारा शपथ-पत्र के जरिये पेश की जाने वाली याचिका में स्पष्ट रूप से शामिल तोनहीं की जाती हैं तो याचिका पर हाई कोर्ट विचार ही नहीं करेगा।
हाई कोर्ट के उपरोक्त संशोधन संविधान की मूल भावना को ही समाप्त कर देने वाला है। इस प्रकार के कानून के बाद किसी असक्षम व्यक्ति द्वारा याचिका दायर करना तो हमेशा के लिये समाप्त हो जाने वाला है और पत्र-याचिका जैसी शब्दावली की भी समाप्ति ही समझी जावे। यह न मात्र अनुचित ही, बल्कि असंवैधानिक भी है। यदि गहराई में जाकर देखें तो हम पाते हैं कि जनहित याचिकाओं के जरिये आम लोगों के हितों और मानव अधिकारों का संरक्षण होता रहा है। ऐसे में हाई कोर्ट का यह नया कानून मानव अधिकारों का हनने करने वाला कदम सिद्ध हो सकता है।
इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि जनहित याचिका के माध्यम से कुछ लोग कानून के इस प्रावधान का दुरुपयोग और स्वयं के हित में उपयोग कर रहे हैं। लेकिन ऐसे कुछ लोगों के कारण सभी लोगों के न्याय प्राप्ति के मार्ग में बाधाएँ खडी कर दी जावें और नागरिकों के संवैधानिक संरक्षण प्राप्त करने के मौलिक अधिकारों पर परोक्ष रूप से पाबन्दी लगादी जावे, यह तो कोई न्याय नहीं हुआ।
यदि कोर्ट के समक्ष यह प्रमाणित हो जाता है कि कोई व्यक्ति जनहित याचिका के प्रावधान का दुरुपयोग कर रहा है, तो कोर्ट को ऐसे लोगों को दण्डित करने के लिये कडे कानून बनाने जाने चाहिये, न कि ऐसे चालाक किस्म के लोगों के कारण अन्य निर्दोष लोगों के न्याय प्राप्ति के मार्ग में व्यवधान पैदा किये जावें। मैं समझता हूँ कि न मात्र यह न्याय की माँग है, बल्कि मेरा साफ तौर पर यह भी मानना है कि इस संशोधन की संवैधानिकता को चुनौती दी जानी चाहिये और यदि चुनौती दी गयी तो संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 32 एवं 226 की अभी तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गयी विवेचना एवं यह न्याय के पवित्र सिद्धान्तों के सामने यह टिकने वाला नहीं है।

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